कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Rahat Indori
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Habib Jalib
Gulzar
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(407) Peoples Rate This
मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद
हस्ती को अपनी शोला-ब-दामाँ करेंगे हम
ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
वक़्त करता है परवरिश बरसों
तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
रास्ता है कि कटता जाता है