तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
मैं रो रहा हूँ तुम हँस रहे हो मैं मुस्कुराया तो क्या करोगे
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तुम्हें जो मेरे ग़म-ए-दिल से आगही हो जाए
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
ब-क़द्र-ए-जोश-ए-जुनूँ तार तार भी न किया
मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
आज 'क़ाबिल' मय-कदे में इंक़लाब आने को है
कितने शोरीदा-सर मोहब्बत में
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
आलम-ए-सोज़-ए-तमन्ना बे-कराँ करते चलो