तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
इश्क़ इंसान की ज़रूरत है
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तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है
हस्ती को अपनी शोला-ब-दामाँ करेंगे हम
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
आज जुनूँ के ढंग नए हैं
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
आलम-ए-सोज़-ए-तमन्ना बे-कराँ करते चलो