मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
तुम्हें बुलाना भी जानता हूँ
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अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तुम्हें जो मेरे ग़म-ए-दिल से आगही हो जाए
ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
कितने शोरीदा-सर मोहब्बत में
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन