कुछ देर किसी ज़ुल्फ़ के साए में ठहर जाएँ
'क़ाबिल' ग़म-ए-दौराँ की अभी धूप कड़ी है
Habib Jalib
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होंटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है
वक़्त करता है परवरिश बरसों
कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त
हस्ती को अपनी शोला-ब-दामाँ करेंगे हम
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
हादसे ज़ीस्त की तौक़ीर बढ़ा देते हैं
आज जुनूँ के ढंग नए हैं
मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से