कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त
बुझता जाता है दिल चराग़ जले
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Jaun Eliya
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दिन छुपा और ग़म के साए ढले
सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
आज जुनूँ के ढंग नए हैं
होंटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
कुछ देर किसी ज़ुल्फ़ के साए में ठहर जाएँ
ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद