आज जुनूँ के ढंग नए हैं
तेरी गली भी छूट न जाए
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तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
तुम को भी शायद हमारी जुस्तुजू करनी पड़े
तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
हस्ती को अपनी शोला-ब-दामाँ करेंगे हम
कूचा-ए-यार मरकज़-ए-अनवार
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी