मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
मगर कुछ अपने लिए भी सोचा मैं याद आया तो क्या करोगे
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हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
हवादिस हम-सफ़र अपने तलातुम हम-इनाँ अपना
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
जहान-ए-आरज़ू आवाज़ ही आवाज़ होता है
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा