रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
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दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
रास्ता है कि कटता जाता है
मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
जहान-ए-आरज़ू आवाज़ ही आवाज़ होता है
तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
तुम्हें जो मेरे ग़म-ए-दिल से आगही हो जाए
वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद
मुद्दतों हम ने ग़म सँभाले हैं