हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए
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ज़माना दोस्त है किस किस को याद रक्खोगे
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
हस्ती को अपनी शोला-ब-दामाँ करेंगे हम
वो कब आएँ ख़ुदा जाने सितारो तुम तो सो जाओ
मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
ब-क़द्र-ए-जोश-ए-जुनूँ तार तार भी न किया