कूचा-ए-यार मरकज़-ए-अनवार
अपने दामन में दश्त-ए-ग़म की ख़ाक
Wasi Shah
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कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त
हवादिस हम-सफ़र अपने तलातुम हम-इनाँ अपना
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
जहान-ए-आरज़ू आवाज़ ही आवाज़ होता है
वो कब आएँ ख़ुदा जाने सितारो तुम तो सो जाओ
दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तुम्हें जो मेरे ग़म-ए-दिल से आगही हो जाए
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता