वक़्त करता है परवरिश बरसों
हादिसा एक दम नहीं होता
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आलम-ए-सोज़-ए-तमन्ना बे-कराँ करते चलो
मुद्दतों हम ने ग़म सँभाले हैं
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
कुछ देर किसी ज़ुल्फ़ के साए में ठहर जाएँ
ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
रास्ता है कि कटता जाता है
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
कितने शोरीदा-सर मोहब्बत में