अपनी नाकामियों पे आख़िर-ए-कार
मुस्कुराना तो इख़्तियार में है
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पहाड़ी की आख़िरी शाम
एक अजब शहज़ादा मेरे बाग़ों का
शहर की गलियाँ घूम रही हैं मेरे क़दम के साथ
शहज़ादे की मौत
जाने दो इन नग़्मों को आहंग-ए-शिकस्त-ए-साज़ न समझो
मेरी मोहब्बत चाहती है
रात का ताज
या इलाहाबाद में रहिए जहाँ संगम भी हो
आज सितारे आँगन में हैं उन को रुख़्सत मत करना
बन-मानुस
अपने सब चेहरे छुपा रक्खे हैं आईने में