मैं जब 'क़तील' अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है
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ख़याल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार भी नहीं बाक़ी
क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया
शर्मिंदा उन्हें और भी ऐ मेरे ख़ुदा कर
हुस्न को चाँद जवानी को कँवल कहते हैं
सोच को जुरअत-ए-पर्वाज़ तो मिल लेने दो
मैं ने पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठाएगा
तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
गिरते हैं समुंदर में बड़े शौक़ से दरिया
जश्न-ए-आज़ादी
जब से असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर हो गया
जब अपने ए'तिक़ाद के मेहवर से हट गया
हम को तो इंतिज़ार-ए-सहर भी क़ुबूल है