माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
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कहूँ क्या फ़साना-ए-ग़म उसे कौन मानता है
थक गया मैं करते करते याद तुझ को
उकताहट
मैं अपने दिल से निकालूँ ख़याल किस किस का
सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न बुत-ख़ाना
इस दौर में तौफ़ीक़-ए-अना दी गई मुझ को
साँवली
शायद मिरे बदन की रुस्वाई चाहता है
ऐ दोस्त! तिरी आँख जो नम है तो मुझे क्या
क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया
दीवारें