थक गया मैं करते करते याद तुझ को
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ
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विसाल की सरहदों तक आ कर जमाल तेरा पलट गया है
हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं
अपनी ज़बाँ तो बंद है तुम ख़ुद ही सोच लो
यारो ये दौर ज़ोफ़-ए-बसारत का दौर है
सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
राब्ता लाख सही क़ाफ़िला-सालार के साथ
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
उस पर तुम्हारे प्यार का इल्ज़ाम भी तो है
ये घर मिरा गुलशन है गुलशन का ख़ुदा-हाफ़िज़
एहतिराम-ए-लब-ओ-रुख़्सार तक आ पहुँचे हैं
जब भी आता है मिरा नाम तिरे नाम के साथ
इक जाम खनकता जाम कि साक़ी रात गुज़रने वाली है