थोड़ी सी और ज़ख़्म को गहराई मिल गई
थोड़ा सा और दर्द का एहसास घट गया
Ahmad Faraz
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दीवाली
अंदेशा-ए-अर्बाब-हरम साथ रहेगा
लफ़्ज़ चुनता हूँ तो मफ़्हूम बदल जाता है
उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है
जीत ले जाए कोई मुझ को नसीबों वाला
कैसे कैसे भेद छुपे हैं प्यार भरे इक़रार के पीछे
उसे मना कर ग़ुरूर उस का बढ़ा न देना
मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए
मेरे ब'अद वफ़ा का धोका और किसी से मत करना
दीवारें
क्या इस का गिला कीजे उसे प्यार ही कब था
दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं