लफ़्ज़ चुनता हूँ तो मफ़्हूम बदल जाता है
इक न इक ख़ौफ़ भी है जुरअत-ए-इज़हार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आएँ किसी 'ग़ालिब' से 'क़तील'
हज़रत-ए-'ज़ौक़' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
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गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
उकताहट
मेरी तरह
दीवारें
उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है
अहबाब को दे रहा हूँ धोका
हाथ दिया इस ने मिरे हाथ में
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न बुत-ख़ाना
अब जिस के जी में आए वही पाए रौशनी
हालात के क़दमों पे क़लंदर नहीं गिरता
हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ
रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में