कौन इस देस में देगा हमें इंसाफ़ की भीक
जिस में खूँ-ख़्वार दरिंदों की शहंशाही है
जिस में ग़ल्ले के निगहबाँ हैं वो गीदड़ जिन से
क़हत-ओ-अफ़्लास के भूतों ने अमाँ चाही है
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घनघोर घटा के आँचल को जब काली रात निचोड़ गई
वही गेसुओं की उड़ान है वही आरिज़ों का निखार है
हर तरफ़ सतवत-ए-अर्ज़ंग दिखाई देगी
अच्छा यक़ीं नहीं है तो कश्ती डुबा के देख
हर बे-ज़बाँ को शोला-नवा कह लिया करो
जीत ले जाए कोई मुझ को नसीबों वाला
थक गया मैं करते करते याद तुझ को
ज़िंदगी मैं भी चलूँगा तिरे पीछे पीछे
तह में जो रह गए वो सदफ़ भी निकालिए
सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं
अपने लिए अब एक ही राह नजात है
दर्द-ए-मुश्तरक