इक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी शब में
मिरा दिमाग़ मिरा दिल कहीं नहीं होता
तिरा ख़याल कुछ ऐसा निखर के आता है
तिरा विसाल भी इतना हसीं नहीं होता
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सुबूत-ए-इश्क़ की ये भी तो एक सूरत है
तमाम-तर उसी ख़ाना-ख़राब जैसा है
क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
क्या मस्लहत-शनास था वो आदमी 'क़तील'
तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
मेहरबाँ हम पे जो तक़दीर हमारी होगी
दिल जलता है शाम सवेरे
अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ
ऐ दोस्त! तिरी आँख जो नम है तो मुझे क्या
गिरते हैं समुंदर में बड़े शौक़ से दरिया
यारो कहाँ तक और मोहब्बत निभाऊँ मैं
हर तरफ़ सतवत-ए-अर्ज़ंग दिखाई देगी