क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो
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दिल जलता है शाम सवेरे
बड़ा मुंसिफ़ है अमरीका उसे अल्लाह ख़ुश रक्खे
गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें
फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा
गाते हुए पेड़ों की ख़ुनुक छाँव से आगे निकल आए
मंज़र समेट लाए हैं जो तेरे गाँव के
ये बात फिर मुझे सूरज बताने आया है
इस दौर में तौफ़ीक़-ए-अना दी गई मुझ को
ख़याल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार भी नहीं बाक़ी
तमाम-तर उसी ख़ाना-ख़राब जैसा है
क्या जाने किस ख़ुमार में किस जोश में गिरा
हालात की उजड़ी महफ़िल में अब कोई सुलगता साज़ नहीं