ले मेरे तजरबों से सबक़ ऐ मिरे रक़ीब
दो-चार साल उम्र में तुझ से बड़ा हूँ मैं
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मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
जब अपने ए'तिक़ाद के मेहवर से हट गया
जो भी ग़ुंचा तिरे होंटों पे खिला करता है
कुछ कह रही हैं आप के सीने की धड़कनें
हालात की उजड़ी महफ़िल में अब कोई सुलगता साज़ नहीं
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बन कर
अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
हम उसे याद बहुत आएँगे
दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
हालात की भीगी रात भी है जज़्बात का तेज़ अलाव भी
आख़री हिचकी तिरे ज़ानूँ पे आए
यूँ तसल्ली दे रहे हैं हम दिल-ए-बीमार को