मैं अपने दिल से निकालूँ ख़याल किस किस का
जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे
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हो चुका इंतिज़ार सोने दे
कहूँ क्या फ़साना-ए-ग़म उसे कौन मानता है
ये मिरा बुझता सुलगता सिन ये मेरे रात-दिन
लफ़्ज़ चुनता हूँ तो मफ़्हूम बदल जाता है
रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में
दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं
ज़िक्र मिरा और तेरे लब पर याद मिरी और तेरे दिल में
जीत ले जाए कोई मुझ को नसीबों वाला
अपने लिए अब एक ही राह नजात है
आज और कल
आया ही था अभी मिरे लब पे वफ़ा का नाम
हालात की भीगी रात भी है जज़्बात का तेज़ अलाव भी