अपने लिए अब एक ही राह नजात है
हर ज़ुल्म को रज़ा-ए-ख़ुदा कह लिया करो
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नए इक शहर को सुब्ह-ए-सफ़र क्या ले चली मुझ को
तर्क-ए-वफ़ा के ब'अद ये उस की अदा 'क़तील'
गाते हुए पेड़ों की ख़ुनुक छाँव से आगे निकल आए
मेरी तरह
सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
रास्ते याद नहीं राह-नुमा याद नहीं
टूटी हुई ब़ाँबी में वो बस लेता है
फ़सुर्दगी का मुदावा करें तो कैसे करें
हालात के क़दमों पे क़लंदर नहीं गिरता
ज़िंदगी मैं भी चलूँगा तिरे पीछे पीछे
अच्छा यक़ीं नहीं है तो कश्ती डुबा के देख
शायद मिरे बदन की रुस्वाई चाहता है