हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ
शीशे के महल बना रहा हूँ
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अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
राब्ता लाख सही क़ाफ़िला-सालार के साथ
तितलियों का रंग हो या झूमते बादल का रंग
तड़पती हैं तमन्नाएँ किसी आराम से पहले
उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है
जश्न-ए-आज़ादी
क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया
मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
ज़ीस्त की गर्मी-ए-बेदार भी लाया सूरज
थक गया मैं करते करते याद तुझ को
खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें
जाँच-परख कर देख चुकी तू हर मुँह-बोले भाई को