राब्ता लाख सही क़ाफ़िला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक़्त की रफ़्तार के साथ
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Allama Iqbal
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यारो कहाँ तक और मोहब्बत निभाऊँ मैं
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
सितम के बा'द करम की अदा भी ख़ूब रही
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना
वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
गाते हुए पेड़ों की ख़ुनुक छाँव से आगे निकल आए
आबाद उसी ने दिल की वादी की है
लहू में डूबा हुआ मिला है वफ़ा का हर इक उसूल तुझ को
अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
न जाने कौन सी मंज़िल पे आ पहुँचा है प्यार अपना
तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की