अब जिस के जी में आए वही पाए रौशनी
हम ने तो दिल जला के सर-ए-आम रख दिया
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बड़ा मुंसिफ़ है अमरीका उसे अल्लाह ख़ुश रक्खे
जश्न-ए-आज़ादी
यूँ लगे दोस्त तिरा मुझ से ख़फ़ा हो जाना
तरब-ख़ानों के नग़्मे ग़म-कदों को भा नहीं सकते
लेता था जवानी में कभी जिस की पनाह
रहगुज़र
सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं
आज की बातें कल के सपने
हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगे
बे-ख़ुदी में पहलू-ए-इक़रार पहले तो न था
क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
मरहला रात का जब आएगा