अटा है शहर बारूदी धुएँ से
सड़क पर चंद बच्चे रो रहे हैं
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किसी दराज़ में रखना कि ताक़ पर रखना
कितनी ठंडी थी हवा क़र्या-ए-बर्फ़ानी की
गर्म हर लम्हा लहू जिस्म के अंदर रखना
आस हुस्न-ए-गुमान से टूटी
जवाँ रुतों में लगाए हुए शजर अपने
अँधेरों में उजाले खो रहे हैं
खंडर में दफ़्न हुई हैं इमारतें क्या क्या
मैं जंग जीत के जब्र-ओ-अना की हार गया
वो अहल-ए-कहफ़ थे जिन को ज़िया मिली आख़िर
साया सा इक ख़याल की पहनाइयों में था
कितना नादिम हूँ किसी शख़्स से शिकवा कर के