वो अहल-ए-कहफ़ थे जिन को ज़िया मिली आख़िर
मिरा ये दौर कि अब तक अंधेरा ग़ार में है
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आस हुस्न-ए-गुमान से टूटी
अटा है शहर बारूदी धुएँ से
किसी दराज़ में रखना कि ताक़ पर रखना
साया सा इक ख़याल की पहनाइयों में था
कितना नादिम हूँ किसी शख़्स से शिकवा कर के
अँधेरों में उजाले खो रहे हैं
जवाँ रुतों में लगाए हुए शजर अपने
कितनी ठंडी थी हवा क़र्या-ए-बर्फ़ानी की
खंडर में दफ़्न हुई हैं इमारतें क्या क्या
मैं जंग जीत के जब्र-ओ-अना की हार गया
गर्म हर लम्हा लहू जिस्म के अंदर रखना