आख़िर-ए-शब थी
वो सेहन-ए-मस्जिद में बे-सुध पड़ा सो रहा था
मैं ने उस को जगाया
उठ...
ये शहादत का तकबीर का वक़्त है
दुआओं की तस्ख़ीर का वक़्त है
वो उठा... मेरा क़ातिल जिसे मैं ने ख़ुद ही उठाया
उठा...
और मेहराब-ए-मस्जिद में मेरे लहू से चराग़ाँ हुआ
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मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था
उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है
नवाह-ए-शौक़ में है इक दयार-ए-निकहत-ए-गुल
रात
मैं सरगिराँ था हिज्र की रातों के क़र्ज़ से
शाम
ख़्वाहिश में सुकूँ की वही शोरिश-तलबी है
क्या मिला ऐ ज़िंदगी क़ानून-ए-फ़ितरत से मुझे
तेरे शैदा भी हुए इश्क़-ए-तमाशा भी हुए
फिर ज़ेहन की गलियों में सदा गूँजी है कोई
पूछो मुझे ऐ हम-नफ़साँ कौन हूँ क्या हूँ
दिल की बिसात पे शाह प्यादे कितनी बार उतारोगे