पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत
अब ये दुख है पाँव क्यूँ चादर से बाहर आ गया
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हो दिल-लगी में भी दिल की लगी तो अच्छा है
घिरते बादल में तन्हाई कैसी लगती है
खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में
हज़ार शुक्र कभी तेरा आसरा न गया
मैं सरगिराँ था हिज्र की रातों के क़र्ज़ से
मिरे सफ़र की हदें ख़त्म अब कहाँ होंगी
हासिल-ए-ज़ीस्त इश्क़ ही तो नहीं
दिल दश्त है वफ़ूर-ए-तमन्ना ग़ुबार है
सामान-ए-दिल को बे-सर-ओ-सामानियाँ मिलीं
चाहत जी का रोग है प्यारे जी को रोक लगाओ क्यूँ
शो'ला सा कोई बर्क़-ए-नज़र से नहीं उठता
दुनिया दुनिया सैर सफ़र थी शौक़ की राह तमाम हुई