मन धन सब क़ुर्बान किया अब सर का सौदा बाक़ी है
हम तो बिके थे औने-पौने प्यार की क़ीमत कम न हुई
Allama Iqbal
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वो तेरी इनायत की सज़ा याद है अब तक
वो माह-वश है ज़मीं पर नज़र झुकाए हुए
कम-ज़र्फ़ भी है पी के बहकता भी बहुत है
क्या इश्क़ का लें नाम हवस आम नहीं है
क्या क्या न तिरे शौक़ में टूटे हैं यहाँ कुफ़्र
मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था
ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता
खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में
है दुकान-ए-शौक़ भरी हुई कोई मेहरबाँ हो तो ले के आ
शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर
चाहत जी का रोग है प्यारे जी को रोक लगाओ क्यूँ
हर रंग हर आहंग मिरे सामने आजिज़