न आशिक़ हैं ज़माने में न माशूक़
इधर हम रह गए हैं और उधर आप
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शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
दुल्हन भी अगर बन के आएगी रात
तीस दिन यार अब न आएगा
माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे
तस्वीर-ए-चश्म-ए-यार का ख़्वाहाँ है बाग़बाँ
रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब
दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
नक़्द-ए-दिल का बड़ा तक़ाज़ा है
मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
चश्म-ए-मय-गूँ वहाँ शराब लज़ीज़