रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
और पसीने की बू गुलाब में है
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दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए
पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
जीतेंगे न हम से बाज़ी-ए-इश्क़
नज़'अ के दम भी उन्हें हिचकी न आएगी कभी
रहते काबे में अकेले क्या हम
न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन
घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के
ली ज़बाँ उस की जो मुँह में हो गया ज़ौक़-ए-नबात
देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी
ख़ुदा के पास क्या जाएँगे ज़ाहिद
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे