बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
ज़रा सा झाँक के देखें कहीं हवा ही न हो
Faiz Ahmad Faiz
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ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ