जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ
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कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर