तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
तमाम खोए हुओं को इशारा कर के लाओ
Gulzar
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जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है