न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
न जाने क्या मिरे काँधे पे सर सा रहता है
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वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं