मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है
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तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर