चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं बुझ के रह गया उस को हवा बनाने में
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बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर
ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
कुछ तो ठहरे हुए दरिया में रवानी करें हम
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब