एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर
ख़ामुशी फैला रखी है आज मैं ने ख़ाक पर
अब मिरा सारा हुनर मिट्टी में मिल जाने है
हाथ उस ने रख दिए हैं दीदा-ए-नमनाक पर
रोज़ बढ़ती ही चली जाती है बीनाई मिरी
रोज़ रख देता हूँ आँखों को तेरी पोशाक पर
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ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है