क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं
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मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर