जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
बदन से उड़ता हुआ इक ऐसा शरार देखूँ
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कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा