हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम
Ahmad Faraz
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Mohsin Naqvi
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वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला