इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे
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मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से