अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Habib Jalib
Javed Akhtar
Anwar Masood
Gulzar
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(640) Peoples Rate This
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की