कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
मेरे पास आएगा और आसान कर देगा मुझे
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मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ