मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
फिर इस के बाद कोई शय चमकती रहती है
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ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर