वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को
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इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए