तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है
Parveen Shakir
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Rahat Indori
Habib Jalib
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(414) Peoples Rate This
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ